Tuesday, March 22, 2011

सुना था की ****

सुना था की
जो अंधेरों को पी जाते हैं
सुबह को
हथेलियों ...में उनके
शबनम सी गिरती है जिंदगी
लबों की ख़ामोशी और
आँखों की बेहोशी
बहुत कुछ छुपा गई है
सच तो यह है कि
दर्द बनकर दिल में
अब भी रिसती है जिंदगी
बहुत मासूम से थे
वो खिलोनों जैसे मेरे अरमां
ख़ाक हुए जो इस ठंडी राख में
अब किस सुकून की तलाश में
अंगारों सी जलती है जिंदगी

बादलों को घिरते देखा
तो इक आस बंधी है
देखें रिमझिम सा बरसता है पानी
या अश्कों की शक्ल में
फिर मुझको मिलती है जिंदगी
जय हिंद ........
२२-०३-२०११

1 comment:

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    भारतीय ब्लॉग लेखक मंच

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