Sunday, April 24, 2011

धडकने रुक सी जाती हैं**

 
धडकने रुक सी जाती हैं
ओस की बूंदें
अलसाई पलकों से टकराकर
जैसे पूछ रही हों मेरे ह्रदय का पता
फिर अपने भीतर की
हरियाली को बिछा देता हूँ मैं
सम्पूर्ण धरा पर
किसी सर्द सुबह
हल्की-हल्की उड़ती सी धुंध कोई
सामने ले आती है
तुम्हारा चेहरा जब
अचानक से
एक ख़ामोशी सी छा जाती है
शब्द पिघल कर धूप में
घुल जाते हैं
फिर बादल का टुकड़ा कोई
घेर लेता है मेरे अस्तित्व को ही
एक ठण्डी छाँव
उतरने लगती है मुझ में
शहर का ये कोलाहल
भीड़ के बीचों-बीच से
आवाज देकर तुमसे मिला
देता है मुझे जब
अचानक से
एक सिहरन सी उठती है
और ये सांझ भली लगती है
कई रंग मन में उठते हैं
और फिर रंगते हुए बादलों को
पश्चिम के उस छोर तकचला जाता हूँ मैं
हाँ, सूरज बन कर पिघल जाता हूँ मैं
कोई शाम मेहरबान होकर
तुमसे मिला देती है
किसी न किसी बहाने जब
अचानक से

No comments:

Post a Comment