Thursday, October 31, 2013




जब-जब दानव बीच सड़क पर
चलकर आएँगे
किसी भले मानुष के घर को
आग लगाएँगे
अनगिन दाग़ लगे है इनके 
काले दामन पर
लाख देखना चाहें फिर भी
देख पाएँगे
कभी जाति कभी मज़हब के
झण्डे फ़हराकर
छीन कौर भूखों का गुण्डे
खुद खा जाएँगे
नफ़रत बोकर नफ़रत की ही
फ़सलें काटेंगे
खुली हाट में  नफ़रत का ही-
ढेर लगाएँगे
तुझे कसम है  हार जाना
लंका नगरी में
खो गया विश्वास कहाँ से
खोजके लाएँगे 
इंसानों के दुश्मन तो हर
घर में बैठे हैं
उनसे  टक्कर लेने वाले -
भी मिल जाएँगे
जय-हिन्द 

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